Sunday 17 October 2010

... और सुबह हो गई

ये क्या सुनती रहती है तू...- उसके मोबाइल पर बाँसुरी की कोई धुन बज रही थी। शरद का पूरा चाँद और सब जगह बिखरी उसकी चाँदनी... सारा कुछ ठहरा हुआ मद्धम और शीतल... वो खुद भी...जो लगातार जलती रहती है। नदी के किनारे बिछी रेत पर हम दोनों एक दूसरे के पास ही लेटे हुए थे... वैसे दोनों साथ ही बड़े हुए हैं...साथ ही पैदा हुए, लेकिन लंबे समय तक मेरी उससे पहचान नहीं हो पाई, पहचान तो तब हुई जब हम दोनों ने लड़ना शुरू कर दिया। कभी उसके जलने का कारण मैं होती थी, तो कभी वो खुद।
च्च... ये मालकौंस है...अच्छा नहीं है? – उसने वैसे ही आँखें मूँदे कहा।
अरे कुछ मजेदार सुन-सुना...– मैंने उसको चिढ़ाया।
तू मेरा कभी पीछा छोड़ेगी...? - उसने मुझे घूर कर देखा।
मैं तेरा पीछा कैसे छोड़ सकती हूँ, मैं तो खुद तू हूँ... नहीं? – उसने बहुत मायूस नजरों से मुझे देखा और आँखें मूँद ली।
अँधेरे में उसके हल्के रंग के कपड़ों का रंग और हल्का लग रहा था। मुझे चुहल सूझी। - तू इतने मरे हुए रंग क्यों पहनती है?
क्योंकि लोग कहते हैं...- सीधा, तीखा उत्तर
मतलब... ?
लोग कहते हैं कि मुझे हल्के रंग के कपड़े पहनना चाहिए...- उसने मुझे टरकाने की ठान ली थी।
क्यों... ?
क्योंकि मेरा रंग गहरा है...
और तू मान लेती है। - मैंने उसे फिर चिढ़ाया...
नहीं, मैं उसे छोड़ देती हूँ।
कैसे?
अरे, जैसा कहा जाता है वैसा करके - कहे जाने के सारे रास्ते बंद हो जाते हैं।
और तुझे उससे कोई फर्क नहीं पड़ता है? – मैंने कुरेदा
नहीं, मैं सिर्फ वही नहीं होना चाहती, जिस तरह से मुझे देखा जाता है, तो फिर अपने फ़िजिकलिटी को इतनी तवज्ज़ो क्यों दी जाए कि बाकी सब कुछ पीछे रह जाए... ? – उसने साफ किया।
इस बार मैंने नहले पर देहला मारा – सुन, एक शेर सुनाती हूँ – अच्छी नहीं नज़ाकतें अहसास इस कदर, शीशा अगर बनोगे तो पत्थर भी आएगा।
वो जोर से खिलखिलाई – माशाअल्लाह... देखती हूँ कि असर यहाँ भी हो रहा है।
मैंने गंभीर होकर कहा – क्या सही नहीं है?
हाँ... सही है।
तो फिर... ?
ऊ हूँ... ये वैसा नहीं है, फिर अपने होने को हम कहाँ घड़ पाते हैं... ये हमारे इख़्तियार में नहीं होता है। – उसने बात खत्म करने की गरज़ से कहा।
तू मुझसे इतना तर्क क्यों करती है?
क्योंकि तू मुझे अपनी तरह से जीने नहीं देती है। - उसने चिढ़कर कहा।
मैं तुझे वैसे जीने देती अगर तू सीधी राह पर चलती... बार-बार तो बीहड़ का रास्ता पकड़ लेती है। - मैंने उसे समझाने की कोशिश की। - क्यों नहीं वैसे जी लेती है, जैसे सब कोई जीते हैं? तेरा सुर हमेशा सबसे अलग क्यों होता है?
मैं भटक जाती हूँ, - फिर थोड़ा रूककर – कभी-कभी मैं भी वैसी ही होना चाहती हूँ, मुझे भी उन सारे लोगों से रश्क़ होता है, जो सहज जीवन जीते हैं, मगर क्या करें, कम्बख़्त दिल को चैन नहीं है किसी तरह...।
क्या उलझन है, ये तो बता।
समझ पाती तो क्या सुलझा नहीं लेती? – उसने बहुत आहत नज़रों से मुझे टटोला।
मैं कोशिश करती हूँ तो तू झटक देती है।
छोड़ ना! मुझे अपना आप ऐसे ही भाता है, लेकिन तू है कि मेरा पीछा नहीं छोड़ती है। इस सबमें ही मैं खुद को देख, समझ और महसूस पाती हूँ। - वह अब बैठ गई थी। उसके बाल कंधे से उतर कर चेहरे को ढँकने लगे थे।
मुझे फिर शरारत सूझी – तू जानती है तू खूबसूरत है?
लंबी बरौनियों को उठाया तो आँखों में हीरे झिलमिलाए... – हाँ, लेकिन...
लेकिन क्या?
मानती नहीं हूँ।
क्यों, इसमें क्या उज्र है?
मान लेने पर हम खुद को दूसरों की नजरों से देखने और तौलने लगते हैं, ये हमें उतना ही सीमित कर देता है, जितना हमसे चाहा गया है।
और तुम सारी सीमाओं को तोड़ना चाहती हो... – मैंने सवाल किया
नहीं, मैं तो बस ‘मैं’ होना चाहती हूँ, बस उतनी ही जितनी तू मुझे सह पाए... अपने बाह्य से अलग...
तो क्या हो पाती है...
ज्यादातर तो हाँ, कभी-कभी बाहर अटकाने में सफल हो जाता है। - उसकी आँखों में राख पसर गई थी।
मेरे साथ रहने में तुझे कोई दिक्कत है? – मैं पूरी तरह से मायूस हो गई थी।
नहीं... तेरे होने से ही मैं, ‘मैं’ हो पाती हूँ।
हम दोनों चुप हो गईं...
रात और गहरी हो गई... तभी किसी ने नदी में पत्थर फेंका... चाँद का अक़्स थोड़ा काँपा और...
अलार्म की तीखी आवाज़ से नींद खुल गई...।
कहानी का मॉरल – सूत्र-36
संवेदनशीलता सबसे बड़ा गुनाह है...

2 comments:

  1. बहुत अच्छी प्रस्तुति .
    विजयादशमी की हार्दिक शुभकामनाएं .

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  2. मान लेने पर हम खुद को दूसरों की नजरों से देखने और तौलने लगते हैं, ये हमें उतना ही सीमित कर देता है, जितना हमसे चाहा गया है....
    बधाई.....अच्छी पोस्ट के लिए....

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